संस्कृतस्वाध्याय:

क्यों पढ़ाई जानी चाहिए बच्चों को संस्कृत?
आयरलैंड के डबलिन में जॉन स्कॉटस सीनियर स्कूल के संस्कृत शिक्षक रटगर कोर्टेनहोस्र्ट का सम्बोधन जो भारतीय धरोहर पत्रिका में वर्ष 2015 में प्रकाशित हुआ है –

देवियों और सज्जनों, हम यहां एक घंटे तक साथ मिल कर यह चर्चा करेंगे कि जॉन स्कॉट्टस विद्यालय में आपके बच्चे को संस्कृत क्यों पढऩा चाहिए? मेरा दावा है कि इस घंटे के पूरे होने तक आप इस निष्कर्ष पर पहुंचेंगे कि आपका बालक भाग्यशाली है जो संस्कृत जैसी असाधारण भाषा उसके पाठ्यक्रम का हिस्सा है।

सबसे पहले हम यह विचार करते हैं कि संस्कृत क्यों पढ़ाई जाए?
आयरलैंड में संस्कृत को पाठ्यक्रम में शामिल करने वाले हम पहले विद्यालय हैं। ग्रेट ब्रिटेन और विश्व के अन्य हिस्सों में जॉन स्काट्टस के 80 विद्यालय चलते जहां संस्कृत को पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है।

दूसरा सवाल है कि संस्कृत पढ़ाई कैसे जाती है?
आपने ध्यान दिया होगा कि आपका बच्चा विद्यालय से घर लौटते समय कार में बैठे हुए मस्ती में संस्कृत व्याकरण पर आधारित गाने गाता होगा। मैं आपको बताना चाहूंगा कि भारत में अध्ययन करने के समय से लेकर आज तक संस्कृत पढ़ाने को लेकर हमारा क्या दृष्टिकोण रहा है।

लेकिन पहला सवाल है संस्कृत क्यों?
इसका उत्तर देने से पहले हमें संस्कृत के गुणों पर ध्यान देना होगा। अपनी आवाज की सुमधुरता, उच्चारण की शुद्धता और रचना के सभी आयामों में संपूर्णता के कारण यह सभी भाषाओं से श्रेष्ठ है। यही कारण है कि अन्य भाषाओं की भांति मौलिक रूप से कभी भी इसमें पूरा परिवर्तन नहीं हुआ। मनुष्य के इतिहास की सबसे पूर्ण भाषा होने के कारण इसमें परिवर्तन की कभी कोई आवश्यकता ही नहीं पड़ी।यदि हम शेक्सपीयर की अंग्रेजी को देखें तो हमें पता चलेगा कि वह हमारे लिए आज कितनी अलग और कठिन है जबकि वह मात्र 500 वर्ष पुरानी अंग्रेजी है। हमें शेक्सपीयर और किंग जेम्स बाइबिल की अंग्रेजी को समझने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ती है। इससे थोड़ा और पीछे चले जाएं तो केवल सात सौ साल पुरानी कैसर की पुस्तक पिलिग्रिम्स प्रोग्रेस में अंग्रेजी का कुछ भी ओर-छोर पता नहीं चलेगा। हम उस भाषा को आज अंग्रेजी की बजाय एंग्लो-सेक्शन कहते हैं। अंग्रेजी तो तब पैदा भी नहीं हुई थी।सारी भाषाएं बिना किसी पहचान के बदलती रहती हैं। वे बदलती हैं क्योंकि वे दोषयुक्त हैं। आने वाले परिवर्तन वास्तव में विकृतियां हैं। विशाल रेडवुड वृक्ष के जीवनकाल की भांति ये 7-8 सौ वर्षों में पैदा होती हैं और मर जाती हैं, क्योंकि इतनी विकृतियों के बाद उनमें कोई जीवंतता नहीं बची होती। आश्चर्यजनक रूप से संस्कृत इसका एकमात्र अपवाद है। यह अमर भाषा है। इसके गठन का संपूर्ण और सुविचारित होना ही इसकी निरंतरता का कारण है। इसके व्याकरण और शब्द-रचना की पहुंच से एक भी शब्द छूट नहीं पाया है। इसका अर्थ यह है कि हरेक शब्द के मूल का पता लगाया जा सकता है। इसका अर्थ यह नहीं है कि इसमें नए शब्द नहीं रचे जा सकते। जिसप्रकार हम अंग्रेजी में ग्रीक और लैटिन के पुराने विचारों का उपयोग करके नए शब्द गढ़ते हैं, जैसे कि टेली (दूर) विजन (दर्शन) और कम्प्यूट (गणना) अर आदि। इसी प्रकार संस्कृत में छोटे शब्दों और हिस्सों से बड़े जटिल शब्दों की रचना की जाती है। तो एक मौलिक और अपरिवर्तनीय भाषा को जानने का क्या लाभ है? जैसे कि एक सदा साथ रहने वाले दोस्त का क्या लाभ है? वह विश्वसनीय होता है।पिछली कुछ शताब्दियों में विश्व को संस्कृत के असाधारण गुणों का पता चला है और इसलिए अनेक देशों के विश्वविद्यालय में आपको संस्कृत विभाग मिलेगा। चाहे आप हवाई जाएं या कैंब्रिज या हार्वर्ड और यहां तक कि ट्रिनिटी विश्वविद्यालय, डबलिन, सभी में एक संस्कृत विभाग है। हो सकता है कि आपका बच्चा इनमें से किसी एक विश्वविद्यालय में संस्कृत विभाग का प्रोफेसर बने। हालांकि भारत इसका आदि देश है लेकिन आज संस्कृत की वैश्विक पूछ बढ़ी है। इस भाषा में उपलब्ध ज्ञान ने पश्चिम को आकर्षित किया है। चाहे वह आयुर्वेद हो या फिर योग, ध्यान की तकनीकि हों या फिर हिंदुत्व, बौद्ध जैसे अनेक व्यावहारिक दर्शन, इनका हम अपने यहां उपयोग कर रहे हैं। इनसे स्थानीय परंपराओं और पंथों के साथ विवाद समाप्त करके समायोजन और जागरूकता फैलाते हैं।संस्कृत में उच्चारण की शुद्धता अतुलनीय है। संस्कृत की शुद्धता अक्षरों के वास्तविक आवाज की संरचना और निश्चितता पर आधारित है। हरेक वर्ण के उच्चारण का स्थान निश्चित (मुख, नाक और गले में) और अपरिवर्तनीय है। इसलिए संस्कृत में अक्षरों को कभी भी समाप्त न होने वाला बताया गया है। इसलिए उच्चारण के स्थान और इसके लिए मानसिक और शारीरिक सिद्धता का पूर्ण नियोजन किया गया है। इस वर्णन को देखने के बाद हम विचार करें कि अंग्रेजी के अक्षरों ए, बी, सी, डी, ई, एफ, जी आदि में क्या कोई संरचना है सिवाय इसके कि यह ए से शुरू होती है।आप कह सकते हैं कि ठीक है लेकिन हमारे बच्चे को एक और विषय और एक और लिपि क्यों पढऩा चाहिए। आज के पश्चिम जगत में उसे इससे किस प्रकार का लाभ पहुंच सकता है? पहली बात है कि संस्कृत के गुण आपके बच्चे में आ जाएंगे। वह शुद्ध, सुंदर और विश्वसनीय बन जाएगा। संस्कृत स्वयं ही आपके बच्चे या इसे पढऩे वाले किसी को भी अपनी अलौकिक शुद्धता के कारण ध्यान देना सिखा देगी। जब शुद्धता होती है तो आप आगे बढ़ता महसूस करते हैं। यह आपको प्रसन्न करता है। ध्यान की यह शुद्धता जीवन के सभी विषयों, क्षेत्रों और गतिविधियों चाहे आप विद्यालय में हो या उसके बाहर, में आपकी सहायता करती है। इससे आपका बच्चा अन्य बच्चों से प्रतियोगिताओं में आगे हो जाएगा। वे अधिक सहजता, सरलता और संपूर्णता में बातों को ग्रहण कर पाएंगे। इस कारण संबंधों, कार्यक्षेत्र और खेल, जीवन के हरेक क्षेत्र में वे बेहतर प्रदर्शन कर पाएंगे और अधिक संतुष्टी हासिल कर पाएंगे। आप जब पूरा प्राप्त करेंगे तो आप भरपूर आनंद भी उठा पाएंगे।संस्कृत के अध्ययन से अन्य भाषाओं को भी सरलता से सीखा जा सकता है, क्योंकि सभी भाषाएं एक दूसरे से कुछ न कुछ लेती हैं। संस्कृत व्याकरण आयरिश, ग्रीक, लैटिन और अंग्रेजी में परिलक्षित होती है। इन सभी में संपूर्ण संस्कृत व्याकरण का कुछ हिस्सा है। कुछ में व्याकरण कुछ अधिक विकसित हो गया है, लेकिन उनमें भी संस्कृत व्याकरण का कुछ हिस्सा पाया जाता है और जो अपने आप में परिपूर्ण होता है।संस्कृत हमें सिखाती है कि भाषा व्यवस्थित होती है और नियमों का पूरी तरह पालन करती है जिन्हें प्रयोग करने पर हमारे बच्चे भी विकसित होते हैं। इसका अर्थ है कि वे अस्वाभाविक रूप से शुद्ध, निश्चित और भाषा में साफ अंतर्दृष्टि वाले हो जाते हैं। सभी भाषाओं की माता संस्कृत से वे अच्छी तरह बोलना सीख जाते हैं। जो अच्छे से बोलना जानते हैं, वे दुनिया पर राज करते हैं। यदि आपके बच्चे एक चैतन्य भाषा में अभिव्यक्त करना सीख पाएंगे तो वे अगली पीढ़ी का नेतृत्व कर पाएंगे।वेदों और गीता के रूप में संस्कृत का साहित्य दुनिया का सबसे व्यापक साहित्य है। विलियम बटलर यीट्स द्वारा किया गया उपनिषदों के भाष्य ने दुनिया के लोगों को वैश्विक धर्म की अनुभूति कराई है। इन पुस्तकों को सीधा पढऩा उनके अनुवादों को पढऩे से कहीं बेहतर होगा क्योंकि अनुवाद मूल से बेहतर नहीं होता। आज मजहबी विचारों को कम समझने और अपरिपक्व मजहबी विचारों के कारण पूरी दुनिया में मजहबी मतांधता और कट्टरता बढ़ रही है, ऐसे में वैश्विक धर्म के बारे में एक साफ जानकारी का होना आवश्यक है।वैश्विक, समन्वयकारी और सीधी-सरल सच्चाइयों को अभिव्यक्त करने में संस्कृत आपके बच्चे की सहायता कर सकती है। परिणामस्वरूप आप अपने अभिभावकत्व का सही ढंग से निर्वहन कर पाएंगे और दुनिया अधिक सौहाद्र्रपूर्ण, मानवीय और एकात्म समाज के रूप में इसका लाभ उठाएगी। संस्कृत की तुलना एक चौबीस घंटे साथ रहने वाले शिक्षक से कर सकते हैं। शेष भाषाएं कुछ ही समय साथ देती हैं। मुझ पर संस्कृत का पहला प्रभाव एक यथार्थवादी आत्मविश्वास के रूप में दिखा। दूसरे, मैं अधिक सूक्ष्मता से और सावधानीपूर्वक बोलने लगा हूँ। मेरी एकाग्रता और ग्राह्यता बढ़ गई है। हमने संस्कृत पाठ्यक्रम को पिछले वर्ष सितम्बर में शुरू किया है और इससे हमारे छात्रों के चेहरे पर मुस्कान ला दिया है। यह एक सुखद परिवर्तन है। मैं पूरी तरह आश्वस्त हूँ कि आपके बच्चों को हम एक संपूर्ण, सुगठित और आनंददायी पाठ्यक्रम उपलब्ध करा पा रहे हैं।हम अपने 500 वर्ष के पुनर्जागरण के चक्र को देखें। अंतिम यूरोपीय पुनर्जागरण में तीन चीजों का विकास हुआ – कला, संगीत और विज्ञान, जिससे हमने आज की दुनिया का निर्माण किया है। आज हम नए प्रेरक समय में हैं और नए पुनर्जागरण की शुरुआत हो रही है। यह पुनर्जागरण भी तीन बातों पर आधारित है – अर्थ-व्यवस्था, कानून और भाषा। भाषा को और अधिक वैश्विक होना होगा ताकि हम सेकेंडों में एक-दूसरे से संपर्क कर सकें। अमेरिका के स्पेस कार्यक्रम नासा आईटी और आर्टिफीशियल इंटेलीजेंस के विकास के लिए संस्कृत की ओर ही देख रही है।जॉन स्कॉट्टस के छात्रों का अनुभव है कि संस्कृत उनके मस्तिष्क को तेज, साफ और उर्वर बनाती है। यह उन्हें शांत और खुश करती है। यह हमें बड़ा सोचने के लिए प्रेरित करती है। यह हमारी जिह्वा को साफ और लचीली बनाती है जिससे हम किसी भी भाषा का उच्चारण कर सकंते हैं। अंत में मैं नासा के रिक ब्रिग की एक बात उद्धरित करना चाहुंगा। संस्कृत पूरे ग्रह की भाषा बन सकती है यदि इसे उत्साहवर्धक और आनंददायी तरीके से पढ़ाया जाए।साभार – भरतीय धरोहरसंस्कृत एक ऐसी भाषा है जिसको गाली देने वाले कभी उसे पढ़ते नहीं हैं,और स्वयं को तार्किक,चिंतक,बुद्धिजीवी कहते हैं,, ख़ैर आप लोग मार्कण्डेय पुराण में मदालसा के द्वारा अपने बच्चों को सुनाई गई लोरी सुनिए:–

शुद्धोसि बुद्धोसि निरंजनोऽसि,संसारमाया परिवर्जितोऽसिसंसारस्वप्नं त्यज मोहनिद्रामदालसोल्लपमुवाच पुत्रम्॥
पुत्र यह संसार परिवर्तनशील और स्वप्न के सामान है इसलियेमॊहनिद्रा का त्याग कर क्योकि तू शुद्ध ,बुद्ध और निरंजन है।

शुद्धो sसिं रे तात न तेsस्ति नाम कृतं हि ते कल्पनयाधुनैव । पंचात्मकम देहमिदं न तेsस्ति नैवास्य त्वं रोदिषि कस्य हेतो: ॥
हे लाल! तू तो शुद्ध आत्मा है, तेरा कोई नाम नहीं है। यह कल्पित नाम तो तुझे अभी मिला है। वह शरीर भी पाँच भूतों का बना हुआ है। न यह तेरा है, न तू इसका है। फिर किसलिये रो रहा है?

न वा भवान् रोदिति वै स्वजन्मा शब्दोsयमासाद्य महीश सूनुम् । विकल्प्यमाना विविधा गुणास्ते-sगुणाश्च भौता: सकलेन्द्रियेषु ॥
अथवा तू नहीं रोता है, यह शब्द तो राजकुमार के पास पहुँचकर अपने आप ही प्रकट होता है। तेरी संपूर्ण इन्द्रियों में जो भाँति भाँति के गुण-अवगुणों की कल्पना होती है, वे भी पाञ्चभौतिक ही है?

भूतानि भूतै: परि दुर्बलानि वृद्धिम समायान्ति यथेह पुंस: । अन्नाम्बुदानादिभिरेव कस्य न तेsस्ति वृद्धिर्न च तेsस्ति हानि: ॥
जैसे इस जगत में अत्यंत दुर्बल भूत, अन्य भूतों के सहयोग से वृद्धि को प्राप्त होते है, उसी प्रकार अन्न और जल आदि भौतिक पदार्थों को देने से पुरुष के पाञ्चभौतिक शरीर की ही पुष्टि होती है । इससे तुझ शुद्ध आत्मा को न तो वृद्धि होती है और न हानि ही होती है।

त्वं कञ्चुके शीर्यमाणे निजेsस्मिं- स्तस्मिश्च देहे मूढ़तां मा व्रजेथा: शुभाशुभै: कर्मभिर्दहमेत- न्मदादि मूढै: कंचुकस्ते पिनद्ध: ॥
तू अपने उस चोले तथा इस देहरुपि चोले के जीर्ण शीर्ण होने पर मोह न करना। शुभाशुभ कर्मो के अनुसार यह देह प्राप्त हुआ है। तेरा यह चोला मद आदि से बंधा हुआ है, तू तो सर्वथा इससे मुक्त है ।

तातेति किंचित् तनयेति किंचि- दम्बेती किंचिद्दवितेति किंचित् ममेति किंचिन्न ममेति किंचित् त्वं भूतसंग बहु मानयेथा: ॥
कोई जीव पिता के रूप में प्रसिद्ध है, कोई पुत्र कहलाता है, किसी को माता और किसी को प्यारी स्त्री कहते है, कोई “यह मेरा है” कहकर अपनाया जाता है और कोई “मेरा नहीं है”, इस भाव से पराया माना जाता है। इस प्रकार ये भूतसमुदाय के ही नाना रूप है, ऐसा तुझे मानना चाहिये ।

दु:खानि दु:खापगमाय भोगान् सुखाय जानाति विमूढ़चेता: । तान्येव दु:खानि पुन: सुखानि जानाति विद्वानविमूढ़चेता: ॥
यद्यपि समस्त भोग दु:खरूप है तथापि मूढ़चित्तमानव उन्हे दु:ख दूर करने वाला तथा सुख की प्राप्ति करानेवाला समझता है, किन्तु जो विद्वान है, जिनका चित्त मोह से आच्छन्न नहीं हुआ है, वे उन भोगजनित सुखों को भी दु:ख ही मानते है।

हासोsस्थिर्सदर्शनमक्षि युग्म- मत्युज्ज्वलं यत्कलुषम वसाया: । कुचादि पीनं पिशितं पनं तत् स्थानं रते: किं नरकं न योषित् ॥
स्त्रियों की हँसी क्या है, हड्डियों का प्रदर्शन । जिसे हम अत्यंत सुंदर नेत्र कहते है, वह मज्जा की कलुषता है और मोटे मोटे कुच आदि घने मांस की ग्रंथियाँ है, अतः पुरुष स्त्री के जिन अङ्गों पर कामुक हो अनुराग करता है, क्या वह नरक की जीती जागती मूर्ति नहीं है?

यानं क्षितौ यानगतश्च देहो देहेsपि चान्य: पुरुषो निविष्ट: । ममत्वमुर्व्यां न तथा यथा स्वे देहेsतिमात्रं च विमूढ़तैषा ॥
पृथ्वी पर सवारी चलती है, सवारी पर यह शरीर रहता है और इस शरीर में भी एक दूसरा पुरुष बैठा रहता है, किन्तु पृथ्वी और सवारी में वैसी अधिक ममता नहीं देखी जाती, जैसी कि अपने देह में दृष्टिगोचर होती है। यही मूर्खता है ।

धन्योs सि रे यो वसुधामशत्रु- रेकश्चिरम पालयितासि पुत्र । तत्पालनादस्तु सुखोपभोगों धर्मात फलं प्राप्स्यसि चामरत्वम ॥
धरामरान पर्वसु तर्पयेथा: समीहितम बंधुषु पूरयेथा: । हितं परस्मै हृदि चिन्तयेथा मनः परस्त्रीषु निवर्तयेथा: ॥
सदा मुरारिम हृदि चिन्तयेथा- स्तद्धयानतोs न्त:षडरीञ्जयेथा: । मायां प्रबोधेन निवारयेथा ह्यनित्यतामेव विचिंतयेथा: ॥
अर्थागमाय क्षितिपाञ्जयेथा यशोsर्जनायार्थमपि व्ययेथा:। परापवादश्रवणाद्विभीथा विपत्समुद्राज्जनमुध्दरेथाः॥
बेटा ! तू धन्य है, जो शत्रुरहित होकर अकेला ही चिरकाल तक इस पृथ्वी का पालन करता रहेगा। पृथ्वी के पालन से तुझे सुखभोगकी प्राप्ति हो और धर्म के फलस्वरूप तुझे अमरत्व मिले। पर्वों के दिन सब को भोजन द्वारा तृप्त करना, बंधु-बांधवों की इच्छा पूर्ण करना, अपने हृदय में दूसरों की भलाई का ध्यान रखना और परायी स्त्रियों की ओर कभी मन को न जाने देना । अपने मन में सदा भगवान का चिंतन करना, उनके ध्यान से अंतःकरण के काम-क्रोध आदि छहों शत्रुओं को जीतना, ज्ञान के द्वारा माया का निवारण करना और जगत की अनित्यता का विचार करते रहना । धन की आय के लिए राजाओं पर विजय प्राप्त करना, यश के लिए धन का सद्व्यय करना, परायी निंदा सुनने से डरते रहना तथा विपत्ति के समुद्र में पड़े हुए लोगों का उद्धार करना ।

–रटगर कोर्टेनहोस्र्ट

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Rama Raksha Stotram

रामः (रामो) राजमणिः सदा विजयते रामं रमेशं भजे 
रामेण अभिहता निशा-चर-चमूः रामाय तस्मै नमः 
रामात् न अस्ति (रामान्नास्ति) परायणं परतरं रामस्य दासः अस्मि अहम् (दासोस्म्यहम्)
रामे चित्तलयः सदा भवतु मे भो: राम ! माम् उद्धर ||

(Shrii Rama, the jewel among kings, is ever victorious. I sing the praise of that Rama,
who is the Lord of Siita, by whom the army of demons who wander around at nights were completely killed, my salutations to Him!
There is nothing beyond Rama to be worshipped. I’m the servant of Rama.
May my mind be absorbed in Rama all the time. Hey Rama, please uplift me!)

This is the last shloka of Shrii Rama Raksha Stotram, and uses all 8 vibhaktis in Sanskrit.

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Book Review – Dune by Frank Herbert

 

Dune (Dune, #1)Dune by Frank Herbert
5 of 5 stars

An incredible story that revolves around the fate of Atreides family, with Duke at its head, his Bene Gesserit concubine Jessica and son Paul, who have been entrusted with the control of Arrakis. Duke’s family in this alternate world were given control of this spice island, Arrakis but were set upon by their enemies and were then made fugitives. But then the plot thickens and it comes out as a story of resilience and valour of their last surviving members of Atreides family and how they aligned themselves with native Fremens to retake control of their destiny. This sci-fi book stands apart from others as it takes early Islamic victories as the plot and then superimpose that in a distant future to bring us a tale of a new Muad’Dib prophet who kills his enemies and establishes a new empire. It’s also a story of a disenfranchised people who believed in their myths, took a fugitive in their fold and then beat against all odds the mightiest of all armies in a different world, much like what was achieved in the early centuries of Islamic history here on earth.

The plot of Dune is set at a time when Machines have been decimated in the Butlerian Jihad and decree has been passed declaring “Thou shalt not make a machine in the likeness of a man’s mind”. Now there are only cyclops like enhanced humans, some of whom have superhuman analytical abilities like Mentats, others have superhuman intuitive powers like Bene Gesserit. They represent the dichotomy of empiricists-believers, male-female and scientific-religious with a proposed solution of Kwisatz Haderach who will eventually merge these two extremes and show the path forward for a Nietzschean superhuman race.

This book has everything, religion, politics, effects of colonism on natives, fury of nature and blatant destruction of resources for consumption by insatiable races of people. The book also shows the power of myth making and religion on people and how these can be sustained over huge lengths of time to drive people to do near impossible feats.

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कारवाँ गुजर गया, गुबार देखते रहे…

 

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धर्म: क:?

 

संग्रहक: – श्रीमान् राजेंद्र: पौळ: , सियाटल

+१ ४२५ ८०२ १०६६

 

विभिन्नता इति पुस्तकेन राजीव-मल्होत्रा-महोदय: एकं संदेशं प्रेषितवान् – अब्राहमजन्येभ्य: रिलिजनत्रयेभ्य: सनातन: धर्म: निश्चित: भिन्न:। किंतु स: धर्मस्य संज्ञां स्पष्टतया न दत्तवान्। अत: आंग्लवर्ष२०१४त: अहं धर्मस्य‌ अर्थं मार्गयित्वा मार्गयित्वा अत्र संग्रहितवान्|

 

धर्मस्य विविधानां अंगानां दर्शनम् अध: प्रश्नोत्तररुपेन लिखितम्।

१. धर्म: क:?

२. धर्म: किमर्थं आवश्यकम्?

३. स्वधर्म: क:?

४. धर्मलक्षणानि कानि?

 

 

१.  धर्म: क:?

प्रभु: श्रीराम: उवाच –

 

विधानं शाश्वतं धर्म: तु सम्बध्दं येन सर्वकम्।

स्नेह-प्रेम-मयेऩ़़़एव बन्धनेन धरातले।।१.९.३।।

 

धर्ममूल: हि वेद: एष: ग्रन्थ: सनातन:।

यस्मै श्रद्धाम् प्रदास्याम: नूनम् आंतरिकीम् वयम्।।१.९.४।।

 

प्रकाशितेन वेदेन समाज: ऐक्यम कृतं तदा।

धर्मस्य ऐक्यात् समाज: अभूत् सत्यं एतत् न संशय:।।१.९.७।।

 

करुणामयेन हि ईशेन ध्रुवं वेदं प्रकाशितम्।

इन्दुनां चन्द्रसूनुनां वेदं आश्रित्य च एकता।।१.९.९।।

 

वेद: बध्नाति न: सर्वै: सर्वदेशीयकै: सह।

अस्मत् साम्राज्यभुक्तै: हि दूरान्तर-निवासिभि:।।१.९.१०।।

 

पवित्र-वेद्-ग्रंथेषु सर्वेषाम् दृश्यन्ते स्वता।

तस्मात् तै: गठिता नूनम् महाजाति: महीतले।।१.९.१२।।

 

धर्म: सर्वान् निबध्नाति, धर्म: धारयते अखिलम् ।

धर्म: मूलम् समाजस्य संघस्य न संशय: ।| १.१३.१५ |।

 

उरसि प्राणमयी श्रद्धा धर्म: एव प्रकीर्त्यते ।

येन कर्मणि ज्ञाने च भ्रातृत्वम् भजते जन: ।| १.१३.१६।|

 

विधि: जीवनयात्रा या समाजे धर्म: उच्यते।

समाजात् खलु अभिन्नेयम् धर्म: न अत्र विभिन्नता |।१.१३.१७।|

 

धर्महीना: च ये वा स्यु: स्यु: अनार्या: असंशयम्।

स्वार्थ-अन्धा: च कलहयुक्ता: ते सदा मत्सर अन्विता: भवेत् ||१.१३.१८।|

 

उत्सादयति संघर्षम् धर्म: परिजनेषु।

आत्मीयत्वम् सजात्येषु वेदनिष्ठेषु साधुषु भवेत् ।।१.१३.।|

 

स्मर्यताम् वाक्यम् एतम् मे तु (ह्)इन्दु*कल्याणसाधने ।

ईशेन प्रेरिता: यूयम् एतस्मिन् धरणीतले भवेत् ।।१:१३.२०।।

 

इन्दुनाम् विषये न हि स्यात् क:-अपि विश्वासघातक:।

अनार्जवम् प्रतारणाम् सर्वदा वर्जयेत् ध्रुवम्।

न तस्य विरोधित्वम् न मृषा भाषणम् तथा ।।१.१३.२१|।

 

परिवाद: न कर्तव्य: वेदे वर्जितमे एव तत्।

भातृवत् आचरेत् ताम् अस्तु भ्रातृवत् पालयेत् भृशम्।।१.१३.२२।।

 

धर्म: सताम् हित: पुंसाम् धर्म च आश्रय: सताम्।

धर्मात् लोकस्त्रय: तात् प्रवृत्ता: सचराचरा ।।महाभारत ३. ।।

 

सर्वात्मा येन तुष्टति स: धर्म: ।।३.७.११.१२।।

 

अहम् हि ब्रह्मण: अमृतस्य अव्ययस्य शाश्वतस्य ऐकान्तिकस्य सुखस्य धर्मस्य प्रतिष्ठा ।२.१४.२७।।

 

बलम् बलवताम्, च अहम् काम-राग-विवर्जितम् ।

धर्म-अविरुद्ध: भूतेषु काम: अहम् अस्मि भरतऋषभ:।।२.७.११।।

 

क्षत्रिय: हि प्रजारक्षणम् शस्त्रपाणि: प्रदण्डयन्।

निर्जितेय परसैन्यादि क्षितिम् धर्मेण पालयेत् ।।८.। ।

 

सर्वधर्मान् परित्यज्य माम् एकम् एव शरणम् व्रज।

अहम् त्वाम् सर्वपापेभ्य: मोक्षयिष्यामि मा शुच:।।२.१८.६६।।

 

२. धर्म: किमर्थम्?

 

एतद् (धर्मम्) साधयितुम् हि अर्थम् राष्ट्रस्य हि सम्-उद्-भवम्।

समाज: अयम् तु राष्ट्रम् हि तत् प्रतिष्ठानाय उच्यते ।।१.१३.१३।।

 

परिवाद: न कर्तव्य: वेदे वर्जितम् एव तत्।

भ्रातृवत् आचरेत् ताम्(वेदान्) अस्तु भ्रातृवत् पालयेत् भृषम् ।।१.१३.१४।।

 

एकत्वात् आत्मन: यद्वत् शरीरस्य एकता भवेत्।

धर्मस्य बन्धनेन एवम् राष्ट्रस्य स्यात् सुसंहति:(well-knit) ।।१.१३.३१।।

 

धर्म: समाजम्-इति-एतत् द्वयम् यत्र भवेन् मुने! ।

बहवय: गोष्ठ:-च यत्र-स्यु: राष्ट्रके च-असामाजिके भवेत् ।।१.१३.३४।।

युक्तिवाद्यम् भवेत् तत्-तु विध्वस्तम् तु-अचिरात् भवेत् |।१.१३.३५।।

 

प्रभव: नव-धर्मस्य चरित्रहानीकारक:।

दया सहानुभूति: वा न तिष्ठेत् (ह्)इन्दुवंशजे ।।१.१८.५६।।

 

यदा यदा धर्मस्य ग्लानि: भवति भारत।

अभि-उत्थानम् अधर्मस्य तदा आत्मानम् सृजामि अहम् ।।२.४.७।।

 

परित्राणाय साधुनाम् विनाशाय च दुष्कृतानाम्।

धर्मसंस्थापनाय सम्भवामि युगे-युगे ।।२.४.८।।

 

३. स्वधर्म: क:?

 

श्रेयान् स्वधर्म: विगुण:, परधर्मात् सु-अनुष्ठितम्।

स्वभाव नियतम् कर्म कुर्वन् न आप्नोति किल्बिषम् ।।२.१८.४७।।

 

अथ चेत् त्वम्* इमम् धर्म्यम् संग्रामम् न करिष्यसि।

तत: स्वधर्मम् कीर्ति: च हित्वा पापम् अव-आप्स्यसि ।।२.३.३३।।

 

४. धर्मलक्षणानि

 

कर्म-तत्परता-धर्म इति धर्मस्य लक्षणम्।

निष्ठा(१)- आशा(२) -साहस(३)च एव दया(४) विनय (५) एव च।

सेवा(६) च एव भवन्ति-एते धर्मा: च मौलिका: (षट्)स्मृता:।।१.१८.१४।।

 

अव्यभिचारिणी भक्ति:(१)-ईशे वेदे तथा-एव च।

आत्मनि च समाजे च विज्ञेय: धर्म: उत्तम:।।१.१८.१५।।

 

ध्यायन् विश्वहितम् (२) नित्यम् मांगल्याम्-बुद्धिम्-उत्तमम्।

मंगलमयम्-ईशानम् येन-एतद्-रचितम् जगत्।।१.१८.१६।।

 

विपदि साहसिक:(३) य: तु धारयन् मानवम् गुणम्।

स: धीर: हि क्षम: च अस्ति कश्चानाम् नाशनाय् वै।

आर्तानाम् दु:खनाशाय-उद्धराय च मज्जताम्।।१.१८.१७।।

 

सर्वस्वम् संत्यजेत् धीर: रक्षार्थम् प्रतिवेशिनाम्।

युद्धेत् संयुगे वार: त्यजेत् प्राणान् स्वकान् खलु।

रक्षार्थम् समधर्माणम् स्वभाव: एष: तस्य हि ।।१.१८.२९।।

 

दयालु: (४) स्यात् सदा व्यग्र उद्धर्तुम्-आर्तबान्धवम्।

यद्यपि अस्याम् प्रचेष्टायाम् क्लेश: बहुविध: भवेत् ।।१.१८.२०।।

 

शिष्टया: स्यु: इन्दव: सर्वे सर्वदैव परस्परम्।

रुढता पापम् एव स्यात् पुण्यम् च शिष्टता(५) भृषम्।।१.१८.२१।।

 

लक्ष्यम् अव भवेत् तस्य च इन्दुनाम् सेवनम् सदा।

अवसर: हि यदा प्राप्त: तेषाम् सेवा(६)पर: भवेत्।।1१.१८.२२।।

 

शौर्यम् आशाम् भजे निष्ठाम् शिष्ट: दानपर: भवेत्।

सामाजिके सेवापर: एतद्-वेदानुशासनम् ।।१.१८.२३।।

 

अनुसरेत् य: पन्थानम् षड्–इवधम् च जन: भुवि।

ईश्वरस्य कृपापात्रम् हि आमुत्र भवेद्धि स: ।।१.१८.२४।।

 

षडविधस्य च पन्थान: ये सदैव-अनुसारिण:।

पुण्यात्मान: हिते सन्ति च अत्र वै घरणीतले ।।१.१८.२५।।

 

लिखेत् वा न लिखेत् चित्रम् चित्रकार: भवेत् सदा।

(किंतु) पुण्यात्मा न-अस्ति पुण्यात्मा यदा स: न-अस्ति पुण्यकृत् ।।१.१८.२६।।

 

विद्यते साधुता यस्मिन् निष्ठा यस्य अस्ति वृत्तिषु।

षड्धा मार्गानुसारी तु सत्यरुपेण हि अस्ति स: ।।१.१८.२७।।

 

यस्य वा जीवने वृत्ति: मन्त्रिण: श्रमिकस्य च।

सेनाधिनायकस्य-अपि ताम् कुर्यात् स: त्वतन्दित: ।।१.१८.२८।।

 

दैनन्दिनम् सदा कर्म कुर्यात् साधु विचारयन् ।

इत: अ्न्यत् परिचिन्ताम् तु न स्थापयेत् क्वचित् ।।१.१८.२९।।

 

वृत्तिसंपादने द्वैधम् विरक्ति: च वै भवेत् ।

एषा पापमयी बुद्धि: परित्याज्या सदाबुधै: ।।१.१८.३०।।

धृति: क्षमा दम: अस्तोय शौचन् इन्द्रियनिग्रह:।

धी विद्या सत्यम् अक्रोध: दशकम् धर्म-लक्षणम् ।।५. ६.९२।।

:

सत्य अहिंसा ब्रह्मचर्य अस्तेय: अपरिग्रह: इन्दियनिग्रह: नियमा ।।१०त: बुद्ध-विपश्यना-धर्म:।।

 

यम-नियम-आसन-प्राणायाम -प्रत्याहार-धारणा-ध्यान-समाधयो: अष्टौ-अंगानि।। ९.२.२८ योग-धर्म: ।।

सत्य्-अहिंसा-ब्रह्मचर्य-अस्तेय-अपरिग्रहा: यमा:।।९.२.२९।।

शौचम्-संतोष:-तप:-स्वाध्याय:-ईश्वरप्रणिधाना: नियमा:।।९.२.३०।।

 

नष्ट-मोह: स्मृति:-लब्धा त्वत् प्रसादात् अच्युत।

स्थित: अस्मि गतसन्देह: करिष्ये वचनम् तव।। २.१८.७३।।

 

संदर्भ शृंखला

 

१. महर्षि वाल्मिकिविरचित: श्रीरामसंवाद: ।

२. महर्षि व्यासविरचित श्रीमद् भगवद् गीता।

३. महर्षि व्यासविरचित श्रीमद् भागवत।

४. महर्षि व्यासविरचित महाभारत।

५. मनुस्मृती।

६. श्री स्वामीनायण वचनामृत।

७. श्री हनुमानप्रसाद पोद्दारलिखित मानवधर्म ।

८. पाराशरस्मृती।

९. पतंजलि योगसुत्रे ।

१०. विपश्यनाकेंद्रेन प्रकाशितम् पुस्तकम्।

 

श्लोकान्ते संदर्भे प्रथमम् एतद्‌‌ क्रमांकम् स्थापितम्।

याज्ञवल्क्यस्मृती, मनुस्मृती, पाराशरस्मृती, शंखलिखितस्मृती, इत्यादय: स्मृतय: श्रवणात् धर्मगुण उत्पत्ति़ि: मानवेषु।।६त: ।।

 

धर्मनिष्ठा = प्राणनिष्ठा ।।६त:।।

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संस्कृतम् सन्धि प्रकार

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१. स्वरसन्धिः –> पूर्वान्तम् (स्वरः) + उत्तरादिः (स्वरः)
उदाहरणम् – अत्र + अस्ति – अत्रास्ति ।
२. व्यञ्जनसन्धिः –> पूर्वान्तम् (व्यञ्जनम्) + उत्तरादिः (स्वरो वा व्यञ्जनम्)
उदाहरणम् – तत् + नाम – तन्नाम ।
३. विसर्गसन्धिः –> पूर्वान्तम् (विसर्गः) + उत्तरादिः (स्वरो वा व्यञ्जनम्)
उदाहरणम् – रामः + च – रामश्च ।
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१.१ सवर्णदीर्घसन्धिः –> पूर्वान्तम् (अ.आ इ.ई उ.ऊ ऋ.ॠ) + उत्तरादिः (सवर्णस्वरः) –> आदेशः (आ, ई, ऊ, ॠ)
सूत्रम् – “अकः सवर्णे दीर्घः”
उदाहरणम् – तथापि, अस्तीति, साधूक्तम्, पितॄणम्
१.२ गुणसन्धिः –> पूर्वान्तम् (अ.आ) + उत्तरादिः (इ.ई उ.ऊ ऋ.ॠ लृ) –> आदेशः (ए, ओ, अर्, अल्)
सूत्रद्वयम् – “आद्गुणः” (आत् गुणः) “अदेङ्गुणः” (अत् एङ् गुणः)
उदाहरणम् – तथेति, नोक्तम्, सप्तर्षयः, तवल्कारः
१.३ वृद्धिसन्धिः –> पूर्वान्तम् (अ.आ) + उत्तरादिः (ए.ऐ ओ.औ) –> आदेशः (ऐ, औ)
सूत्रम् – “वृद्धिरेचि” (वृद्धिः एचि)
उदाहरणम् – तथैव​, तवौदार्यम्
१.४ यण्-सन्धिः –> पूर्वान्तम् (इ.ई उ.ऊ ऋ.ॠ लृ) + उत्तरादिः (असवर्णस्वरः) –> आदेशः (य् व् र् ल्)
सूत्रम् – “इको यणचि” (इकः यण् अचि)
उदाहरणम् – इत्यपि, प्रत्यवदत्, पित्रंशः, लाकृतिः
१.५ यान्त-वान्त-आदेश-सन्धिः –> पूर्वान्तम् (ए ऐ ओ औ) + उत्तरादिः (असवर्णस्वरः) –> आदेशः (अय् आय् अव् आव्)
सूत्रम् – “एचोऽयवायावः” (एचः अय् अव् आय् आवः)
उदाहरणम् – हरयागच्छ, तस्यायिदम्, गुरवादिश, बालकावागतौ
१.६ पूर्वरूपसन्धिः –> पूर्वान्तम् (ए ओ) + उत्तरादिः (अ) –> आदेशः (ए, ओ)
सूत्रम् – “एङः पदान्तादिति” (एङः पद अन्त तः इति)
उदाहरणम् – गृहेऽस्मि, सोऽहम्
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२.१ श्चुत्वसन्धिः –> पूर्वान्तम् (स् चु तु) + उत्तरादिः (चु तु) –> आदेशः (श् चु)
सूत्रम् – “स्तोः श्चुना श्चुः”
उदाहरणम् – लवश्च, तच्च, गुणिञ्जयतु
२.२ जश्त्वसन्धिः –> पूर्वान्तम् (वर्गीयव्यञ्जनम्) + उत्तरादिः (स्वरः मृदुव्यञ्जनम्) –> आदेशः (पूर्वान्तवर्गीयस्य तृतीयवर्णः)
सूत्रम् – “झलां जशोऽन्ते” (झलां जशः अन्ते)
उदाहरणम् – वागीशः, अजन्तः, तद्यथा, षड्रसाः, सुबन्तः​
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Self-loathing and India’s Anglosphere – Subhash Kak

 

1.

Many international observers have written about the high level of self-loathing in India. I think this is not true of the general population. Like people from other nations, most Indians are proud, self-confident, honest and resilient and this explains their success at science, business, arts and politics around the world.

Yet, there is a kernel of truth in these reports. India’s Anglosphere, members of which are the ones who interact with international authors are indeed a class that is obsequious and servile to the outsiders while being insufferably shallow and narcissistic amongst its own. So what’s the origin of this self-hate?

To answer this, we must go back to James Mill, author of the highly influential History of British India (1817), who wrote this about the entire populations of China and India:

Both nations are to nearly an equal degree tainted with the vices of insincerity; dissembling, treacherous, mendacious, to an excess which surpasses even the usual measure of uncultivated society. Both are disposed to excessive exaggeration with regard to every thing relating to themselves. Both are cowardly and unfeeling. Both are in the highest degree conceited of themselves, and full of affected contempt for others. Both are, in the physical sense, disgustingly unclean in their persons and houses.”

Elsewhere he condemned Indian culture as “barren, perverse and objectionable.” And he wrote of Indians: “under the glosing exterior of the Hindu, lies a general disposition to deceit and perfidy. [And] the same insincerity, mendacity, and perfidy; the same indifference to the feelings of others; the same prostitution and venality are conspicuous in both [Hindus and Muslims].

One could call this sweeping judgement the ravings of a crazed asshat. James Mill (1773–1836), ordained as a minister by the Church, worked for the East India Company and became its chief apologist. He never visited India or knew any Indian language and his idea of India was a fantasy based on second and third hand accounts. Historians like Grant Duff and H.H. Wilson, who had lived in India, condemned the book as being entirely wrong.

But Mill’s ideas were to shape British policy in India directly as a high official of the East India Company, and indirectly through Thomas Babington Macaulay who devised a system of English education for the Indian elite.

Okay, Mill was a racist twit, but why should we care? He has been dead a long, long time. We know that racism was the foundation of colonialism, but we have moved on. India has been politically independent for over seventy years.
Sadly, India’s political independence did not mean civilizational independence. Mill’s ideas matter for they remain powerful within the Indian Anglosphere. Its members have become, in the memorable phrase of Macaulay, “Indian in blood and colour, but English in taste, in opinions, in morals, and in intellect.” Sadly, their accents sound fake and they are not equal in intellect to the best in Britain. They remain unaware of the psychological truth that one must love oneself before one can love and understand others.

As purveyors of shallow opinions like that of Mill, they hate those who are not trying to be like them, and they have a visceral aversion for the customs of the land. Ridiculing those who can’t speak English with the fluency they have, the people who get ahead in their circles are not necessarily the most competent.

Macaulay called Mill’s book “the greatest historical work which has appeared since that of Gibbon.” It was to become the text-book for the candidates for the Indian Civil Service and English educated Indians for several generations. Worst of all, its larger premise still underlies school and college curricula in India, and Indians continue to be exposed to the propaganda underlying this work.

An example of the self-loathing of Indians are the Bollywood actors of Hindi-language films. On Hindi TV programs, most of them insist on answering questions in English!

2.

The Judiciary

Indian judiciary works under a system of language-apartheid. Article 348 of the Indian Constitution (about “Language to be used in the Supreme Court and in the High Courts and for Acts, Bills, etc.”) states that “(a) all proceedings in the Supreme Court and in every High Court… shall be in the English language.”

Imagine that over 70 years after Independence, lawyers in India’s Supreme Court cannot present their case in any Indian language. In 2008, the 216th report of the Law Commission declared that only English qualified for use in the Supreme Court:

It is important to remember that every citizen, every court has the right to understand the law laid down finally by the apex court and at present one should appreciate that such a language is only English.

Given this oversized focus on the supposedly right language, there is much less attention given to logic and critical thinking. Some of the stuff the justices churn out in their opinions is sophomoric, with allusions to Shakespeare and Marlowe or Foucault and Habermas in misplaced settings.

Reliance on English alone in the proceedings and in the judgments on disputes related to culture and civilization is deeply problematic because commonly used English terminology is often not equivalent to what are considered corresponding Indian notions. Thus using precedents from religious property disputes in the UK to issues concerning Hindu temples or other institutions is unwarranted because the term religion is not equivalent to dharma.

Many judges have no sense of India as a civilization and they look at India’s issues from the colonial lens. A wit has remarked that more of India’s mind-colonization occurred since 1947 than in all of the British Rule. Such Indian judges are not even aware of their biases.

3.

Science and technology

A language-apartheid exists in fields of science. As example, consider computer science which is nothing but an extension of mathematics. Indian schoolchildren are taught computer science only in English., which is ridiculous. This prevents brilliant children with innate ability in mathematics, but no facility in English, never achieve their potential in a key technology sector.

Education at the highest level is imparted in English, and one is not allowed to submit dissertations for PhD degree in any Indian language.

Continuing denigration of Indian culture and character has led to loss of self-confidence amongst the Anglophones. It is not surprising then that when it comes to competing internationally in the field of technology, most business leaders in India are reluctant to go beyond providing back office support to Western companies.

4.

In The History of British India, Mill set out to attack the history, character, religion, literature, arts, and laws of India. He justified the colonization of India and the rapine of its resources as a by-product of bringing civilization to the country.

Mill’s ideas provided the rationale for colonial rule that was described by Kipling as “The White Man’s Burden.” It has been estimated that British colonial rule, with its destruction of Indian industry and education, cost India $45 trillion in today’s dollars. But worse, India’s Anglosphere swallowed the colonial nostrums about Britain’s civilizing role and embraced what the American historian Thomas Trautmann has called “British Indophobia” [another name for Hinduphobia].

China dealt with attitudes such as that of James Mill with the slogan to end “The century of humiliation” and in the past half-century has striven to match the glory of its imperial past. China was able to rediscover its spirit of excellence because, unlike India, its elites are not alienated from its own culture and history.

Seventy years ago, India’s education bureaucrats decided to keep out India’s own sciences and other scholarly traditions from school and college curricula on the false pretence that they are part of religion .

5.

Kapila Vatsyayan, modern India’s eminent scholar of art and a good friend, who passed away just a few months ago, once told me that colleges Britain founded in India served their own needs for clerks and soldiers to help in the extraction of Indian wealth and to protect the Raj, with some effort thrown in to understand India’s past so that they could control it better.

The fields that they left alone — art, music, dance and yoga — are the only ones that have maintained vitality. Indeed, people from all over the world travel to India to learn these fields.

Behind these fields lies Indian philosophy, that remains side-lined in Indian academia as something provincial, fit only for those who are stuck in the past.

6.

Nelson Mandela said: “Hatred is like drinking poison and then waiting for it to kill your enemy.” The self-loathing in India’s Anglosphere has percolated down to the media and entertainment. For some time now Bollywood writers have mimicked anti-Semitic, racist, sexist stereotypes of old pre-Second War Western cinema, crudely replacing the Jewish character with the baniya and the temple priest. Audiences have begun to say now: Enough is enough.

https://subhashkak.medium.com/self-loathing-and-indias-anglophones-ccbd8194517

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धातु रूप – (तिड्न्त प्रकरण) की परिभाषा, भेद और उदाहरण

 

धातु रूप – (तिड्न्त प्रकरण)

धातुरूपावलि (तिङन्त-प्रकरण)

संस्कृत में क्रिया-पद पर विचार करने का प्रसंग ही तिङन्त-प्रकरण है। पद के स्वरूप पर विचार करते समय सभी सार्थक शब्दों को ‘पद’ कहा जाता है। इन सभी सार्थक शब्दों को तीन ‘वर्गों’ में बाँट दिया गया है-

  1. नाम,
  2. आख्यात और
  3. अव्यय।

संस्कृत में क्रिया

‘आख्यात’ पद को ही क्रिया-पद’ कहते हैं और क्रिया-पद वे होते हैं जो किसी कर्ता के काम या कुछ करने को बताते हैं। उदाहरण के लिए एक वाक्य लें- रामः पुस्तकं पठति। (राम पुस्तक पढ़ता है।)

इस वाक्य में ‘रामः’ कर्ता है, ‘पुस्तकम्’ कर्म-पद है, कारण उसी को पढ़ा जा रहा है और ‘पठति’ क्रिया-पद या ‘आख्यात’ है, कारण यही ‘राम’-रूप कर्ता के कुछ करने (पढ़ने) को बताता है।

तिड्न्त प्रकरण (धातु रूप)

अब ‘पठति’ क्रिया-पद के रूप पर थोड़ा गौर करें। संस्कृत में किसी भी क्रिया-पद का निर्माण ‘धातु’ और ‘प्रत्यय’ के मिलने से बनता है। उदाहरण के लिए ‘पठति’ में ‘पठ्’ मूल धातु है और ‘ति’ (तिप्) प्रत्यय है। इन दोनों के मिलने से ही ‘पठति’ रूप बनता है। जैसे-

  • पठ् + शप् + तिप्
  • = पठ् + अ + ति
  • = पठति (पढ़ता है।)

 

संस्कृत के धातु

संस्कृत के धातु-पदों में लगनेवाले उपर्युक्त 18 ‘तिङ् प्रत्ययों में प्रथम 9 प्रत्यय परस्मैपद के हैं और बाद के 9 प्रत्यय आत्मनेपद के।

संस्कृत में धातु-पदों के तीन वर्ग हैं-
(क) परस्मैपदी धातु-जिन धातुओं में प्रथम 9 तिङ् प्रत्यय (तिप्, तस्, झि; सिप्, थस्, थ; मिप्, वस्, मस्) लगते हैं।
(ख) आत्मनेपदी धातु-जिन धातुओं में बादवाले 9तिङ् प्रत्यय (त, आताम्, झ; थास्, आथाम्, ध्वम्; इट्, वहि, महिङ्) लगते हैं।
(ग) उभयपदी धातु अर्थात्, जो धातु-पद परस्मैपदी और आत्मनेपदी दोनों हैं और जिनमें अर्थ के प्रसंग के अनुसार दोनों प्रकार के प्रत्यय लगा करते हैं।

 

परस्मैपद धातुओं की रूपावलि

  1. भू (होना)
  2. पठ् (पढ़ना)
  3. गम् (जाना)
  4. स्था (ठहरना, स्थित होना, रहना)
  5. पा (पीना)
  6. दृश्/पश्य (देखना)
  7. दाण-यच्छ (देना)
  8. शुच् (शोक करना)
  9. अर्च्/पूजा (पूजा करना)
  10. तप्/तपना (तपना, तपस्या करना)
  11. हन् (मारना)
  12. अस् (होना)
  13. नृत् (नाचना)
  14. नश् (नाश होना)
  15. चि/चिञ् (-चिञ्-चुनना)
  16. इष् (चाहना, इच्छा करना)
  17. त्रस् (-डरना, उद्विग्न होना, भयभीत होना)
  18. लिख् (लिखना)
  19. प्रच्छ् (पूछना)
  20. सिच् (सींचना)
  21. मिल् (मिलना)
  22. विद् (जानना)
  23. दिश् (इंगित या संकेत करना)
  24. तुद् (कष्ट देना)
  25. मुच् (त्याग करना, छोड़ना)
  26. ग्रह (पकड़ना, ग्रहण करना)
  27. ज्ञा (जानना)
  28. गण (गिनना)
  29. पाल् (=पालना-पोसना, रक्षण करना)

तिङ् प्रत्यय उपर्युक्त प्रकार से ही सभी क्रिया-पदों के रूप बनते हैं। क्रिया-पदों के निर्माण के क्रम में मूल धातुओं के साथ जुड़नेवाले ये ‘तिप्’ आदि कुल प्रत्यय 18 हैं। इनमें प्रारंभ में ‘तिप्’ प्रत्यय है और अन्त में ‘महिङ्’ प्रत्यय है। इन 18 प्रत्ययों को एक साथ बतानेवाले सूत्र के रूप में पहले प्रत्यय ‘तिप्’ का ‘ति’ ले लिया गया है और अन्तिम (18वे) प्रत्यय ‘महिङ्’ का ‘ङ्’, और दोनों को मिलाकर ‘तिङ्’ प्रत्यय (या प्रत्यय-समूह) का बोध कराया जाता है।

ये ‘तिङ्’ प्रत्यय मूल धातुओं के साथ जुड़ते हैं, अतः इनसे बने पदों को ‘तिङन्त’ कहते हैं। प्रकरण ‘अध्याय को कहते हैं। ‘तिङन्त-प्रकरण’ इस बात पर विचार करता है अथवा ‘तिङन्त-प्रकरण’ में इस बात पर विचार किया गया है कि मूल धातुओं में इन प्रत्ययों के लगने से बने क्रिया-पदों का ‘पुरुष’, ‘वचन’ और ‘काल’ की दृष्टि से क्या रूप और अर्थ होता है।

शब्दों का निर्माण शब्द चाहे नाम-पद हो या आख्यात-पद-प्रकृति और प्रत्यय के मिलने से ही होता है। ‘प्रकृति’ मूल धातु-पद को कहते हैं। इनमें लगनेवाले ‘तिङ्’ प्रत्यय, जो संख्या में 18 हैं, निम्नांकित हैं-

ऊपर की तालिका में कुछेक प्रत्यय की बगल में कोष्ठक में दिए गए रूप उन प्रत्ययों में अन्त में लगे हलन्त वर्णों (प, ट् और ङ्) के लोप के बाद उनके बचनेवाले रूपों का संकेत करते हैं।

आत्मनेपदी धातुओं की रूपावलि

  1. ग्रह (पकड़ना, ग्रहण करना)
  2. ज्ञा (जानना)
  3. गण (गिनना)
  4. पाल् (पालना-पोसना, रक्षण करना)
  5. सेव् (सेवा करना)
  6. लभ् (पाना)
  7. वृत् (होना)
  8. शुभ् (शोभता है)
  9. शीङ् (=सोना, शयन करना)
  10. विद् (होना, रहना)
  11. मन् (मानना)

 

उभयपदी धातुओं की रूपावलि

  1. पच् (पकाना)
  2. दुह् (दूहना)
  3. ब्रू (बोलना)
  4. दा (देना)
  5. तन् (विस्तार करना)
  6. कृ (करना)
  7. क्री (खरीदना)
  8. चुर (चुराना)

 

धातुओं के ‘विकरण’

‘विकरण’ उस वर्ण या वर्ण-समूह को कहते हैं जो प्रकृति और प्रत्यय के मध्य में जुड़ता है, जिससे संपूर्ण क्रिया-रूप सामने आ सके। उदाहरण के लिए नीचे कुछ संपूर्ण क्रिया रूपों को उनकी बगल में उनके ‘विकरण’ के साथ दिखाया जाता है-

  • संपूर्ण क्रिया-रूप या क्रिया-पद – प्रकृति + विकरण + प्रत्यय
  • भवति – भू + शप् (अ) + तिप् (ति)
  • दीव्यति – दिव् + श्यन् (य) + तिप् (ति)
  • सुनोति – सु + श्नु (नु) + तिप् (ति)
  • तनोति – तन् + उ + तिप् (ति)
  • चोरयति – चुर् + णिच् + शप् (अय) + तिप् (ति)

दिए गए उदाहरणों में शप्, श्यन्, श्नु, उ, णिच् वगैरह वर्ण या वर्ण-समूह धातुओं के विकरण हैं। इनके बीच में आने पर ही मूल धातु (प्रकृति) और प्रत्यय मिलकर सार्थक क्रिया-पदों का निर्माण करते हैं।

 

धातुओं के ‘गण’

‘गण’ का अर्थ होता है ‘समूह’। ऊपर जिन ‘विकरणों’ की चर्चा की गई है वे संख्या में दस हैं। वे संस्कृत के सभी धातुओं में अवश्य लगते हैं। कुछेक जिन धातुओं में किसी ‘विकरण’ के जुड़ने का एक-जैसा ढंग है उन सबको एक ‘गण’ का या एक ‘गण’ में मान लिया गया है। ऐसे ‘गण’ कुल दस हैं, जो विकरण की संख्या के समानान्तर हैं। इन दस गणों में प्रत्येक के प्रारंभ में जिस धातु के नाम का पाठ किया जाता है उसी के नाम पर उस ‘गण’ का नामकरण कर लिया गया है। ये दस ‘गण’ हैं—

 

संस्कृत की लकारे

  1. भ्वादि (‘भू’ आदि), – लट् लकार (Present Tense)
  2. अदादि (‘अद्’ आदि), – लोट् लकार (Imperative Mood)
  3. जुहोत्यादि (‘हु’ आदि), – लङ्ग् लकार (Past Tense)
  4. दिवादि (‘दिव्’ आदि), – विधिलिङ्ग् लकार (Potential Mood)
  5. स्वादि (‘सु’ आदि), – लुट् लकार (First Future Tense or Periphrastic)
  6. तुदादि (‘तुद्’ आदि), – लृट् लकार (Second Future Tense)
  7. रुधादि (‘रुध्’ आदि), – लृङ्ग् लकार (Conditional Mood)
  8. तनादि (‘तन्’ आदि), – आशीर्लिन्ग लकार (Benedictive Mood)
  9. क्यादि (‘क्री’ आदि) एवं – लिट् लकार (Past Perfect Tense)
  10. चुरादि (‘चुर्’ आदि)। – लुङ्ग् लकार (Perfect Tense)

तात्पर्य यह कि इन्हें भ्वादिगण, अदादिगण आदि कहा जाता है।

नीचे इन धातु-गणों को उनके विकरण एवं उदाहरण के संग एक साथ दर्शाया जाता है।

धातु गण – विकरण – उदाहरण

  1. भ्वादिगण – शप् (अ) – भू + अ + ति भवति
  2. अदादिगण – शप-लुक् (०) – अद्+०+ति-अत्ति
  3. जुहोत्यादिगण – शप्-श्लु (०) – हु (जुहु)+ति-जुहोति
  4. दिवादिगण – श्यन् (य) – दिव्+य+ति-दीव्यति
  5. स्वादिगण – श्नु (नु) – सु+नु+ति-सुनोति
  6. तुदादिगण – श (अ) – तु+अ+ति-तुदति
  7. रुधादिगण – श्नम् (न) – रुध्+न+ति-रुणद्धि
  8. तनादिगण – उ – तन्+उ+ति-तनोति
  9. क्यादिगण – श्ना (ना) – क्री+ना+ति-क्रीणाति
  10. चुरादिगण – णिच्+शप् (अय) – चु+अय+ति-चोरयति

इन ‘गणों’ की भिन्नता से एक-जैसे दिखाई पड़नेवाले धातुओं के रूप भी भिन्न-भिन्न हो जाते हैं। इस क्रम में कई बार अर्थ नहीं बदलते हैं, पर कई बार अर्थ बदल भी जाते हैं। जैसे-

  • भ्वादिगण – अर्च+अ+ति-अर्चति – पूजा करता है।
  • चुरादिगण – अर्च+अय+ति-अर्चयति – पूजा करता है।
  • भ्वादिगण – अर्जु+अ+ति-अर्जति – अर्जन करता है।
  • चुरादिगण – अर्जु+अय+ति-अर्जयति – अर्जन करता है।
  • तुदादिगण – कृ+अ+ति-किरति – बिखेरता है।
  • क्यादिगण – कृ+ना+ति कृणाति हिंसा करता है।
  • तुदादिगण – गृ+अ+ति=गिरति निगलता है।
  • क्रयादिमण – गृ+ना+तिगृणाति शब्द करता है।

संस्कृत क्रिया-पदों के ‘काल’ (Tense)

किसी भी क्रिया का कर्ता उससे सूचित होनेवाले कार्य को तीन ही समयों में कर सकता है। ये तीन ‘समय’ हैं-
(क) समय, जो बीत गया—भूतकाल (Past Tense)
(ख) समय, जो बीत रहा है वर्तमानकाल (Present Tense)
(ग) समय, जो आनेवाला है—भविष्यत्काल (Future Tense)

पर यह स्थूल वर्गीकरण है। इनमें प्रत्येक के कुछ और-और रूप-रंग भी हैं। जैसे-
(क) सामान्य भूतकाल-जो समय बीता ही हो।
(ख) अनद्यतन भूतकाल-जो समय आज के पहले बीता हो।
(ग) परोक्ष अनद्यतन भूतकाल-जो आज के पहले और बहुत पहले बीता हो।

फिर,

(क) सामान्य भविष्यत्काल—जो समय आजकल में आनेवाला हो।
(ख) अनद्यतन भविष्यत्काल—जो समय आज के बाद आनेवाला हो।
(ग) हेतुहेतुमद् भविष्यत्काल—एक समय में होनेवाली एक क्रिया के बाद संभावित दूसरी क्रिया का काल।।

जैसा कि ऊपर के विवरण से स्पष्ट है कि संस्कृत में भूतकाल एवं भविष्यत्काल के तीन-तीन भेद या रूप माने गए हैं। जहाँ तक वर्तमानकाल का संबंध है, उसका एक ही भेद या रूप माना जाता है।।

उपर्युक्त सात क्रिया-रूपों के अतिरिक्त संस्कृत में क्रिया-रूपों के तीन प्रकार और हैं-
(क) क्रिया-रूप, जिससे आदेश आदि सूचित होता है।
(ख) क्रिया-रूप, जिससे अनुज्ञा, आशीर्वाद या कल्याण-कामना सूचित होती है।
(ग) एक विशेष क्रिया-रूप, जो सामान्य (लौकिक) संस्कृत में नहीं—वैदिक संस्कृत में ही पाया जाता है।

“क्रिया’

“क्रिया’ के इन दसों रूपों को लकारों के सहारे (संस्कृत में) व्यक्त किया जाता है, जिसे ‘लकारार्थ-प्रक्रिया’ कहते हैं, अर्थात् संस्कृत में क्रिया-पदों की काल-रचना। उपर्युक्त विवेचन को ध्यान में रखते हुए उसी क्रम से ये दसों लकार नीचे दिए जाते हैं-

  1. लुङ्—सामान्य भूतकाल—अद्य सुष्ठु वृष्टिः अभूत्। (आज अच्छी वर्षा हुई।)
  2. लङ्-अनद्यतन भूतकाल—ह्यः वृष्टिः अभवत्। (कल वर्षा हुई थी।)
  3. लिट्-परोक्ष अनद्यतन भूतकाल-राम-रावणयोः युद्धं बभूव। (राम-रावण में युद्ध हुआ था।)
  4. लुट्—सामान्य भविष्यत्काल—अद्य वर्षाः भविष्यन्ति। (आज वर्षा होगी।)
  5. लुट-अनद्यतन भविष्यत्काल—श्वः वृष्टिः भविता। (कल वर्षा होगी।)
  6. लुङ्-हेतुहेतुमद् भविष्यत्काल-यदि सुवृष्टिः अभविष्यत् तर्हि सुभिक्षम् अभविष्यत्। (यदि अच्छी वर्षा होगी तो फसल भी अच्छी होगी।)
  7. लट्-वर्तमानकाल–अद्य वृष्टिः भवति। (आज वर्षा होती है।)
  8. लोट-आदेश आदि के लिए—
    (क) भवान् मम सहचरः भवतु। – (आप मेरे साथी होइए।)
    (ख) तव कल्याणं भवतु। – (तुम्हारा कल्याण हो।)
  9. लिङ्—
    (क) अनुज्ञा या विधिपरक-भवान् मम सहचरो भवेत्। – (आप मेरे सहायक हों।)
    (ख) आशीर्वाद या कल्याण-कामनापरक-तव कल्याणं भूयात्। – (आपका कल्याण हो।)
  10. लेट्—इस लकार का प्रयोग केवल वैदिक संस्कृत में ही मिलता है, लौकिक संस्कृत में नहीं; अतः उदाहरण छोड़ा जा रहा है।

सारांश यह कि सामान्यतया काल-रूप-भेद की दृष्टि से संस्कृत में उपर्युक्त प्रमुख 9भेद (अन्तिम को छोड़कर)होते हैं और वे वर्तमानकाल-1+भूतकाल-3+भविष्यत्काल-3+आदेश अनुज्ञा-आशीर्वादबोधक-2 क्रिया-रूपों का प्रतिनिधित्व करते हैं। इन सभी रूपों के वाचक कुछ प्रत्यय हैं, जिनके प्रारंभ में ‘ल’ (जैसे-लुङ्, लङ्, लिट्, लुट्, लुट्, लुङ्, लट्, लोट् और लिङ्) लगे रहने के कारण इन्हें ‘लकार’ कहते हैं। ये लकार कालवाचक हैं। इन लकारों के स्थान पर ही परस्मैपदी धातुओं के साथ तिप्, तस्, झि आदि अथवा आत्मनेपदी धातुओं के साथ त, आताम्, झ आदि प्रत्यय होते हैं।

क्रियों-पदों की रूपावलि

नीचे परस्मैपद में दिए गए गणों के सामने उल्लिखित धातुओं की रूपावलि केवल छह लकारों-

  • लट् (वर्तमानकाल), Lat (Present Tense)
  • लुट् (सामान्य भविष्यत्काल), Lut (Common Future Tense)
  • लुङ् (हतुहेतुमद् भविष्यत्काल),- Lud Lakar (Help Past Tense)
  • लङ् (अनद्यतन भूतकाल), Lad Lakar (Anadhatan Past Tense)
  • लोट् (आदेशवाचक) एवं, Lot Lakar (Commander)
  • विधिलिङ् (अनुज्ञा-विधिवाचक), Vidhilid Lakar (License) में दी जा रही है-

(क) भ्वादिगण- 1. भू 2. पठ् 3. गम् 4. स्था 5. पा 6. दृश् 7. दाण् 8. शुच् 9. अर्च् 10. तप
(ख) अदादिगण- 11. हन् 12. अस्
(ग) दिवादिगण- 13. नृत् 14. नश् 15. त्रस्
(घ) स्वादिगण- 16. चि 17. शक्
(ङ) तुदादिगण- 18. लिख् 19. इष 20. प्रच्छ् 21. सिच् 22. मिल 23. विद् 24. दिश् 25. तुद् 26. मुच्
(च) क्रयादिगण- 27. ग्रह् 28. ज्ञा
(छ) चुरादिगण- 29. गण एवं 30. पाल्

नीचे आत्मनेपद में दिए गए गणों के सामने उल्लिखित धातुओं की रूपावलि उपर्युक्त छह लकारों में ही दी जा रही है-
(क) भ्वादिगण-1. सेव् 2. लभ 3. वृत् 4. शुभ्
(ख) अदादिगण-5. शीङ्।
(ग) दिवादिगण-6. विद् 7. मन्

उभयपदी धातुओं के रूप में केवल 8 की रूपावलि दी जा रही है…
(क) भ्वादिगण-1. पच्।
(ख) अदादिगण-2. दुह् 3. ब्रू
(ग) जुहोत्यादिगण-4. दा
(घ) तनादिगण–5. तन् 6. कृ
(ङ) क्रयादिगण—7. क्री
(च) चुरादिगण-8. चुर् कुल 30+7+8-45 धातु

पुरुष

पुरुष- कोई बात जब किसी को कही जाती है तब उसके तीन पक्ष होते हैं-
(क) विषय-अन्य पुरुष (या प्रथम पुरुष)
(ख) श्रोतामध्यम पुरुष
(ग) वक्ता–उत्तम पुरुष

संस्कृत में क्रिया-पदों की रूपावलि में ‘पुरुष’ के बोध का यही क्रम स्वीकृत है।

वचन- संस्कृत भाषा में

वचन- संस्कृत भाषा में चाहे नाम-पद हों या आख्यात-पद, उनकी संख्या के बोध करानेवाले को ‘वचन’ (Number) कहते हैं। संस्कृत में ‘वचन’ तीन होते हैं…

  • एकवचन, द्विवचन और बहुवचन।

जैसे ‘सुप्’ प्रत्यय (जो कि संख्या में 21 हैं और नाम-पदों में जिनके जुड़ने से उनके कारक और वचन को बतानेवाली रूपावलि सामने आती है) विभक्तियों में बँटे होते हैं और प्रत्येक विभक्ति में तीन वचन होते हैं वैसे ही ‘तिङ्’ प्रत्यय भी ‘पुरुष’ में बँटे होते हैं और प्रत्येक ‘पुरुष’ में तीन वचन होते हैं।

जैसा कि ऊपर ही दिखाया गया है—पुरुष तीन होते हैं और प्रत्येक पुरुष की तीन विभक्तियाँ होती हैं, जो उनके एकवचन, द्विवचन और बहुवचन होने को बताती हैं। उदाहरण के लिए, नीचे ‘पठ्’ धातु की वर्तमानकाल (परस्मैपद) की रूपावलि दी जा रही है-

  • पठति – पठतः – पठन्ति
  • पठसि – पठथः – पठथ
  • पठामि – पठावः – पठामः

उपर्युक्त रूपावलि ‘पुरुष’ और ‘वचन’ दोनों को बता रही है।

वह निम्नलिखित प्रकार से है-

  • पुरुष – एकवचन – द्विवचन – बहुवचन
  • अन्य पुरुष- पठति – पठतः – पठन्ति
  • मध्यम पुरुष- पठथः – पठथ – पठ
  • उत्तम पुरुष- पठामि – पठावः – पठामः

इन क्रिया-पदों के अपने कर्ता-पदों के साथ प्रायोगिक रूप इस प्रकार होंगे-

  1. सः पुस्तकं पठति। – (वह पुस्तक पढ़ता है।)
  2. तौ पुस्तकं पठतः। – (वे दोनों पुस्तक पढ़ते हैं।)
  3. ते पुस्तकं पठन्ति। – (वे सब पुस्तक पढ़ते हैं।)
  4. त्वं पुस्तकं पठसि। – (तुम पुस्तक पढ़ते हो।)
  5. युवाम् पुस्तकं पठथः। – (तुम दोनों पुस्तक पढ़ते हो।)
  6. यूयम् पुस्तकं पठथ। – (तुम सब पुस्तक पढ़ते हो।)
  7. अहम् पुस्तकं पठामि। – (मैं पुस्तक पढ़ता हूँ।)
  8. आवाम् पुस्तकं पठावः। – (हम दोनों पुस्तक पढ़ते हैं।)
  9. वयम् पुस्तकं पठामः। – (हमलोग पुस्तक पढ़ते हैं।)
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