मेरठ : ऐतिहासिक नगरी मेरठ मुसलसल उतार-चढ़ाव की गवाह है। दरख्त जवान हुए, हरियाली बिखेरी और एक उम्र के बाद जमींदोज हो गए। खूबसूरत इमारतों और बागान ने इस शहर के हुस्न में चार चांद लगाए, लेकिन वक्त के थपेड़े में ये सब बदरंग हो गए या कंकरीट के जंगल में तब्दील। कुदरत और दुनिया की इस उठापटक में लालकुर्ती की शान और पहचान आज भी बरकरार है। घनी आबादी व तंग गलियों का यह इलाका बुलंदी के उस दौर की ताबीर को आज भी जिंदा रखे है साथ ही गुजरे जमाने की सुनहरी यादों से सराबोर है।
मुगल और अंग्रेजी शासनकाल की निशानियों को लालकुर्ती आज भी अपने दामन में संजोए हुए है। शेख इलाही बख्श की मिल्कियत पर कायम लालकुर्ती ने हर दौर देखा। बताते हैं अंग्रेजी शासनकाल में व्यापारिक और व्यावसायिक गतिविधियों का यह प्रमुख केंद्र था। तब फ्रिज नहीं थे, लिहाजा घड़े, मटके और सुराही से प्यास बुझती थी। हंडिया मोहल्ले में हंडिया यानि घड़े बनते थे। खपरैल के मकानों पर इन्हें फेंककर मजबूती परखी जाती थी।
बकरी मोहल्ला मांस आपूर्ति के लिए जाना जाता था। 1901 में हाफिज अब्दुल करीम ने अंग्रेजों से यह जमीन खरीदकर मदरसा इस्लामिया बनवाया, जो आज भी तालीम की रोशनी बिखेर रहा है। मैदा मोहल्ला उस दौर की रसोई थी। यहां खान-पान का हर सामान मिलता था। घोसी मोहल्ला में पशु पाले जाते थे, यहां से दूध आपूर्ति होती थी। कैंट से सटे इस क्षेत्र से न केवल फौज को आपूर्ति होती थी बल्कि दिल्ली तक लालकुर्ती की धूम थी।
हाथी बघेला और हाथी खाना की झोली भी किस्सों से भरी है। फारसी में बघेला का मतलब पशु गृह अथवा जानवर बांधने की जगह से है। हाथियों के शौकीन शेख के हाथी यहीं पाले जाते थे। जामुन के पेड़ों का विशाल बाग जामुन मोहल्ला के नाम से जाना गया। मैदा मोहल्ले में सुल्तान अल्तमाश की बनवाई मस्जिद आज शान से खड़ी है।
वक्त के साथ लालकुर्ती में बेतहाशा रिहाइश हो गयी। अब नई नस्लें भले ही बहुमंजिला इमारतों में आंखें खोल रही हों, लेकिन झुर्रियों से पटे चेहरे, गड्ढों में धंसी आंखें और जर्जर काया लिए बुजुर्ग बड़े फº से लालकुर्ती की बादशाहत बयां कर वक्त की धूल पोंछते चले आ रहे हैं।
प्रस्तुति- संकल्प रघुवंशी
www.jagran.com Mon, 09 Apr 2012